“झील को दर्पण बना “रात के स्वर्णिम पहर में
झील को दर्पण बना
धरा भी इतराती तो होगी…
दरख्तों के झुरमुट में छिप कर
मन को गुदगुदाती तो होगी…..
किनारों से टकरा टकरा
सबब सुनाती तो होगी …..
ओस की बूँदें दूब के बदन पे
दूर बजती किसी बंसी की धुन
पायल की रुनझुन और सरगम
अनजानी सी कोई आहट आकर
तुम्हे मेरी याद दिलाती तो होगी…..