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Archive for November, 2008

दोषी कौन

 

मैं ताज …..
भारत की गरिमा
शानो शौकत की मिसाल
शिल्प की अद्भुत कला
आकाश की ऊँचाइयों को
चूमती मेरी इमारतें ,
शान्ति का प्रतीक …
आज आंसुओं से सराबोर हूँ
मेरा सीना छलनी
जिस्म यहाँ वहां बिखरा पढा
आग की लपटों मे तडपता हुआ,
आवाक मूक दर्शक बन
अपनी तबाही देख रहा हूँ
व्यथित हूँ व्याकुल हूँ आक्रोशित हूँ
मुझे कितने मासूम निर्दोष लोगों की
कब्रगाह बना दिया गया…
मेरी आग में जुल्स्ती तडपती,
रूहें उनका करुण रुदन ,
क्या किसी को सुनाई नही पढ़ता..
क्या दोष था मेरा ….
क्या दोष था इन जीवित आत्माओं का …
अगर नही, तो फ़िर दोषी कौन….
दोषी कौन, दोषी कौन, दोषी कौन?????

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“बिलखता दर्दाना”

हर स्वप्न एक बिलखता दर्दाना हुआ,
वक्त के छलावे से अपना याराना हुआ..
रूह सिसकती रही, जख्म मूक दर्शक ,
साँस लिए भी जैसे एक जमाना हुआ…
खूने- दिल से लिखा, अश्कों ने मिटा डाला,
तुझे भुलाने का क्या खूब बहाना हुआ….
पीडा मे नहा, ओढ़ कफ़न भटकती चाहतों का,
जिंदा जी जैसे ख़ुद को ही दफनाना हुआ…

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“दिले-नामा-ए-बय”

 
इस दिल का दोगे साथ, कहाँ तक, ये तय करो !
फिर इसके बाद दर्ज, दिले-नामा-ए-बय करो !!

(दिले-नामा-ए-बय = दिल का विक्रय पत्र )
(सेल डीड ऑफ हार्ट)


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“दर्द हूँ मैं “

 

अश्कों से नहाया,
लहू से श्रृंगार हुआ,
सांसों की देहलीज पर कदम रख,
धडकनों से व्योव्हार हुआ,
लबों की कम्पन से बयाँ..
जख्म की शक्ल मे जवान हुआ..
कभी जिस्म पे उकेरा गया,
सीने मे घुटन की पहचान हुआ,
रगों मे बसा,
लम्हा लम्हा साथ चला,
कराहों के स्वर से विस्तार हुआ,
हाँ, दर्द हूँ मै , पीडा हूँ मै…
मेरे वजूद से इंसान कितना लाचार हुआ….

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“खामोश सी रात”

सांवली कुछ खामोश सी रात,

सन्नाटे की चादर मे लिपटी,
उनींदी आँखों मे कुछ साये लिए,
ये कैसी शिरकत किए चली जाती है….
बिखरे पलों की सरगोशियाँ ,
तनहाई मे एक शोर की तरह,
करवट करवट दर्द दिए चली जाती है….
कुछ अधूरे लफ्जों की किरचें,
सूखे अधरों पे मचल कर,
लहू को भी जैसे सर्द किए चली जाती है…
सांवली कुछ खामोश सी रात अक्सर…


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“भ्रम”


कल्पना की सतह पर आकर थमा,
अनजान सा किसका चेहरा है…..
शब्जाल से बुनकर बेजुबान सा नाम,
क्यूँ लबों पे आकर ठहरा है….
एहसास के अंगारे फ़िर जलने लगे,
उदासी की चांदनी ने किया घुप अँधेरा है….
क्षतिज के पार तक नज़र दौड़ आई,
किसके आभास का छाया कोहरा है……
वक्त की देहलीज पर आस गली,
कितना बेहरम दर्द का पहरा है…..
साँस थम थम कर चीत्कार कर रही,
कोई नही.. कोई नही ..ये भ्रम बस तेरा है…..

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“जिन्दगी”

जीने का फकत एक बहाना तलाश करती ये जिन्दगी,

अनचाही किसकी बातें बेशुमार करती ये जिन्दगी…

कोई नही फ़िर किसे कल्पना मे आकर देकर,
यहाँ वहां आहटों मे साकार करती ये जिन्दगी…

इक लम्हा सिर्फ़ प्यार का जीने की बेताबी बढा,
खामोशी से एक स्पर्श का इंतजार करती ये जिन्दगी..

ना एहतियात, ना हया, ना फ़िक्र किसी जमाने की,
बेबाक हो अपना इजहार-ऐ-दर्द करती ये जिन्दगी…

रिश्तों के उलझे सिरों का कोई छोर नही लेकिन,
हर बेडीयों को तोड़ने का करार करती ये जिन्दगी…

बंजर से नयन, निर्जन ये तन, अवसादित मन,
उफ़! इस बेहाली से हर लम्हा तकरार करती ये जिन्दगी….

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“वीरानो मे”



खामोश से वीरानो मे,
साया पनाह ढूंढा करे,
गुमसुम सी राह न जाने,
किन कदमो का निशां ढूंढा करे……….
लम्हा लम्हा परेशान,
दर्द की झनझनाहट से,
आसरा किसकी गर्म हथेली का,
रूह बेजां ढूंढा करे……….
सिमटी सकुचाई सी रात,
जख्म लिए दोनों हाथ,
दर्द-ऐ-जीगर सजाने को,
किसका मकां ढूंढा करें ………..
सहम के जर्द हुई जाती ,
गोया सिहरन की भी रगें ,
थरथराते जिस्म मे गुनगुनाहट,

सांसें बेजुबां ढूंढा करें…………….

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“प्रेमी “

 

दिन को परेशान , रात को हैरान किया करते हैं,
नियाजमन्द ख़ुद ही ख़ुद पे बेदाद किया करते हैं..
नियामते-दुनिया होती है नागवार – तबियत उनकी,
तसव्वुर से ही गुफ्तगू बार बार किया करते हैं…
खूने- जिगर से लिखे जातें हैं अल्फाज इश्क के,
दागे- जुनू मे हर साँस को बीमार किया करते हैं…

(नियाजमन्द- प्रेमी )
(बेदाद- अत्याचार )
(नियामते-दुनिया – विश्व की अमूल्य वस्तु )
(नागवार- मन को ना भाने वाली )
(तसव्वुर- कल्पना )
(दागे- जुनू- पागलपन के दाग

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“दिल”

मुहब्बत से रहता है सरशार ये दिल,
सुबह शाम करता है बस प्यार ये दिल.
कहाँ खो गया ख़ुद को अब ढूँढता है,
कहीं भी नहीं उसके आसार-ऐ-दिल.
अजब कर दिया है मोहब्बत ने जादू,
सभी डाल बैठा है हथियार ये दिल.
यही कह रहा है हर बार ये दिल,
बस प्यार-ऐ-दिल बस प्यार-ये दिल.
युगों से तड़पता है उसके लिये ही,
मुहब्बत में जिसकी है बीमार ये दिल
उसकी है यादों में खोया हुआ वो,
ज़रा सोचो है कितना बेकरार ये दिल.
अब अपने खतों में यही लिख रहा है,
तुम्हारा बस तुम्हारा कर्जदार ये दिल

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तेरा ख्याल

 

तेरा ख्याल था जेहन मे या नाम लबों पर,
आँखों की नमी को तब्दील मुस्कान कर गयी

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इन्तहा-ऐ-मोहब्बत

इन्तहा-ऐ-मोहब्बत में ,
सहरा मे बसर हो जाएगा…
ये असरा-ऐ-जूनून लेकर ,
की वो दरिया है इश्क का,
कभी तो उतर आएगा …

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“दम -ऐ -फिराक”

 
दम -ऐ -फिराक मे निकली थी जान मेरी ,

फ़िर क्यूँ लिखी गईं सजाएं नाम पे तेरी ???

(दम -ऐ -फिराक- बिछुड़ने की घडी)

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हवा



ये हवा कुछ ख़ास है, जो तेरे आस पास है,
मुझे छू, मेरा एहसास कराने चली आई ये हवा।

सारी रात मेरे साथ आँसुओं में नहाके,
मेरे दर्द की हर ओस को मुझसे चुराके,
मेरे ज़ख़्मों का हिसाब तेरे पास लाई ये हवा,

ख़ामोश तन्हा से अफ़सानों को अपने लबों पे लाके,
मेरे मुरझाते चेहरे की चमक को मुझसे छुपाके,
भीगे अल्फ़ाज़ों को तुझे सुनाने चली आई ये हवा,
ये हवा कुछ ख़ास है, जो तेरे आस पास है।
तेरे इंतज़ार में सिसकती इन आँखों को सुलगाके,
कुछ तपती झुलसती सिरहन मे ख़ुद को भीगाके,
जलते अँगारों से तुझे सहलाने चली आई ये हवा,
ये हवा कुछ खास है जो तेरे आस पास है।
मुझे ओढ़ कर पहन कर ख़ुद को मुझ में समेटके,
मुझे ज़िन्दगी के वीरान अनसुलझे सवालों मे उलझाके,
मेरे वजूद को तुम्हें जतलाने चली आई ये हवा,
ये हवा कुछ ख़ास है जो तेरे आस पास है


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‘दो फूल’

 
मेरी कब्र पे दो फूल रोज आकर चढाते हैं वो,
हाय , इस कदर क्यों मुझे तडपाते हैं वो.
मेरे हाथों को छुना भी मुनासिब न समझा,
आज मेरी मजार से लिपट के आंसू बहाते हैं वो.
हाले यार समझ ना सके अब तलक जिनका,
मेरे दिल पे सर रख कर हाले दिल सुनाते हैं वो.
जिक्र चलता है जब जब मोहब्बत का जमाने मे,
मेरा नाम अपने लब पर लाकर बुदबुदाते हैं वो.
मुझसे मिलने मे बदनामी का डर था जिनको,
छोड़ कर हया मेरी कब्र पे दौडे चले आतें हैं वो.
उनके गम का सबब कोई जो पूछे उनसे ,
दुनिया को मुझे अपना आशिक बतातें हैं वो,
कहे जो उनसे कोई पहने शादी का जोडा वो,
मेरी मिट्टी से मांग अपनी सजाते है वो.
मेरी कब्र पे दो फूल रोज आकर चढाते हैं वो,
हाय , इस कदर क्यों मुझे तडपते हैं वो

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“सवाल”

 

जवाब न बना , रहा एक उलझा सा सवाल बनके ,
बहता रहा मुझमे वो हर लम्हा दर्द-ऐ-ख्याल बनके,
आने से पहले ही जो गुजर जाए बिन कुछ कहे,
वो रहा ऐसे गुजरे वक्त की एक मिसाल बनके

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“ज़ख्म -ऐ -दिल”

 

ज़ख्म-ऐ-दिल दिखा नही सकते,
तेरा खंजर चुभा हुआ होगा..

आज की रात जागते गुजरी,
दर्द फिर से बढ़ा हुआ होगा…
आज तक रास्तों में बैठे हैं,
जिन से तेरा गुज़र हुआ होगा…
इतना खामोश क्यूँ है तू हमदम,
आज मुझ से खफा हुआ होगा….
अब तेरे ख़त भी कम ही आते हैं,
तेरी तबियत में कुछ हुआ होगा …

सीमा क्यूँ आँख नम हैं तेरी आज,
कोई दुःख है तुझे हुआ होगा….

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“वहीं पर तुम जहाँ हो काग़जों पर”

 

हीं पर तुम जहाँ हो काग़जों पर,
वहीं मैं आजकल रहने लगा हूँ …….
जिगर के दिल के हर एक दर्द से मैं,
रवां दरिया सा इक बहने लगा हूँ …….

सुना दी आईने ने दिल की बातें,

तुम्हे मैं आजकल पहने लगा हूँ ………
तुम्हारे साथ हूँ जैसे अज़ल से,
तुम्हारी बात मैं कहने लगा हूँ……..

सुनी सीमा हमारे दिल की बातें ???
तुम्हीं से तो मैं सभी कहने लगा हूँ……….

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झूमती कविता

 

बड़ी झूमती कविता मेरे आगोश में आयी है,
शायद तेरे साए से यह धूप चुरा लाई है..

हम तेरे तसव्वुर में दिन रात ही रहते हैं,
कातिल है अदाएं तेरी कातिल ये अंगडाई है..
सूरज जो उगा दिल का, दिन मुझमें उतर आया,
तुम साथ ही थे लेकिन देखा मेरी परछाईं है..

साथ मेरे रहने है कोई चला आया ,
तन्हा कहाँ अब हम पास दिलकश तन्हाई है..
खामोशी से सहना है तूफ़ान जो चला आया,
दिल टूटा अगर टूटा , कहने मे रुसवाई है..
अब रात का अंधियारा छाने को उभर आया,
एहसास हुआ पुरवा तुमेह वापस ले आयी है


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विरह का रंग

आँखों मे तपीश और रूह की जलन,
बोजिल आहें , खामोशी की चुभन,
सिमटी ख्वाईश , सांसों से घुटन ,
जिन्दा लाशों पे वक्त का कफ़न,
कितना सुंदर ये विरह का रंग

(विरह का क्या रंग होता है यह मैं नही जानती . लेकिन इतना ज़रूर है की यह रंग -हीन भी नही होता और यह रंग आँखें नही दिल देखता है)

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‘तेरा आना और लौट जाना’

 

दो लफ्जों मे वो तेरा मुझे चाहना ,
गुजरते लम्हों मे मुझे ही दोहराना…
आँखों के कोरों मे दबा छुपा के जो रखे,
उन अश्कों मे अपनी पलकों को भिगो जाना…
रूह का एहसास था या सपने का भ्रम कोई ,
नीदों मे मुझे चुपके से अधरों से छु जाना…
सच के धरातल का मौन टुटा तो समझा…
शून्य था तेरा आना “और”
एक सवाल यूँ ही लौट जाना…

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“इरादा”


यूँ खफा हो के, मुहं मोड़ के जीने से अच्छा है…,
आ एक दुसरे को छोड़ के जाने का इरादा कर लें,
मासूम से इस दिल को सताने का इरादा कर लें…
आज कसमों और वादों का भ्रम तोड़ दें हम,
दिल की तमन्ना को रुलाने का इरादा कर लें…
जज्बात का तूफान है, पल मे गुजर जाएगा,
अश्कों की तपिश मे रूह जलाने का इरादा कर लें….
मीलों का फासला था, मगर दिल से करीब थे ,
चाहत के सिलसिले को भुलाने का इरादा कर लें…
हर हंसी याद, ख्यालात को टुकडों मे बहा कर,
दिल-ऐ-बर्बादी का जश्न मनाने का इरादा कर लें…
एहसास से एक दूजे के साये की परत पोंच के हम ,
ख़ुद अपने वजूद को दफनाने का इरादा कर लें…

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मौत की रफ़्तार

 
आज कुछ गिर के टूट के चटक गया शायद ..
एहसास की खामोशी ऐसे क्यूँ कम्पकपाने लगी ..
ऑंखें बोजिल , रूह तन्हा , बेजान सा जिस्म ..
वीरानो की दरारों से कैसी आवाजें लगी…
दीवारों दर के जरोखे मे कोई दबिश हुई …
यूँ लगा मौत की रफ़्तार दबे पावँ आने लगी…

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10/22/2008

ख्वाब

ख्वाब

बिलख्ती आँखों मे बसे ख्वाब कुछ यूँ टिमटिमाते हैं,
गोया कांच के टुकड़े हैं जो आंख मे चुभे जाते हैं…

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